पंचायती राज में महिलाओं का दबदबा बढ़ता ही जा रहा है। आज देश में 2.5 लाख पंचायतों में लगभग 32 लाख प्रतिनिधि चुनकर आ रहे हैं। इनमें से 13 से 14 लाख महिलाएं चुन कर आयी हैं। यह आंकड़ा यह बताने के लिए प्रयाप्त है कि किस तरह से महिलाएं राजनीतिक कार्यों में रूचि ले रही हैं। महिलाओं की गांव के कामों में बढ़ती भागीदारी न केवल महिलाओं के खुद के स्वाभिमान के लिए सकारात्मक संकेतक है बल्कि इससे हिन्दुस्तान के गांवों में फैली सामाजिक असमानता भी दूर होगी। खासतौर से लिंग के आधार पर किए जाने वाली गैर-बराबरी अब संभव नहीं रह गयी है। महिलाओं का बढ़ता कद उन्हें घर व बाहर की दुनिया में स्वतंत्र होकर जीने में सहयोग प्रदान कर रहा है। दहेज के नाम पर महिलाओं का हो रहा उत्पीड़न हो अथवा घरेलू हिंसा-इन तमाम सामाजिक कुरीतियों से आज की महिला लड़ने में सशक्त हो चुकी है।
सन् 1959 में बलवन्त राय मेहता समिति की सिफारिशों के आधार पर त्रि-स्तरीय पंचायती राज व्यवस्था लागू की गई। तब भी यह माना गया कि देश का समग्र विकास महिलाओं को अनदेखा करके नहीं किया जा सकता। इसलिए पंचायती राज व्यवस्था को सुदृढ़ करने तथा पंचायतों में महिलाओं की एक तिहाई भागीदारी सुनिश्चित करने के उद्देश्य से 1992 में 73 वां संवैधानिक संशोधन अधिनियम पारित किया गया। इस संशोधन अधिनियम के द्वारा ग्रामसभा का गठन होना अनिवार्य हो गया और ग्राम पंचायतों, और सदस्यों की कुल संख्या की कम से कम एक तिहाई संख्या महिलाओं के लिए आरक्षित कर दी गई। वर्तमान में मध्यप्रदेश, बिहार सहित कई राज्यों ने तो महिलाओं का प्रतिनिधित्व 50 फीसदी तक आरक्षित कर दिया है।
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